Published 2025-06-27
How to Cite
Abstract
भारत में हर पाँच सितंबर को राजधानी से लेकर छोटे-बड़े शहरों, कस्बों, मोहल्लों में माननीय राष्ट्रपति से लेकर स्थानीय निकायों के प्रमुखों के मुख से एक जुमला निकलता है—
"अध्यापक राष्ट्र के निर्माता होते हैं। वे देश के कर्णधार हैं। वे देश की नींव तैयार करते हैं। भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक विकास में उनका महत्वपूर्ण योगदान है," आदि-आदि।
पाँच सितंबर से इतर के दिनों में समाचार पत्रों की सुर्खियाँ कभी घृणा तो कभी क्रोध के साथ यह बताती हैं कि अमुक राज्य में अध्यापकों पर लाठियाँ बरसाई गईं, अमुक राज्य में पिछले सात दिन से भूख हड़ताल पर बैठे अध्यापकों के समूह को पानी की बौछार से तितर-बितर किया गया। अमुक विद्यालय में छापामार टीम ने विद्यार्थियों के समक्ष ही देर से आने वाले अध्यापकों को लताड़ा, और भी न जाने क्या-क्या? अध्यापक वर्ग अपनी सकारात्मक या नकारात्मक छवि के लिए स्वयं ज़िम्मेदार है या समाज की उपभोक्तावादी संस्कृति, जिसके निर्माण एवं विकास में उसका स्वयं का भी योगदान है। यह बहुत गंभीर एवं महत्वपूर्ण चर्चा का विषय है।
फिलहाल, प्रस्तुत कहानीनुमा आलेख के माध्यम से अपनी आत्मछवि, जनछवि, अपने कर्तव्यों, अधिकारों और राष्ट्रीय सम्मानों आदि की खबरों से बेखबर, एक छोटे से शहर गलरुभोज के राजकीय इंटर कॉलेज की अध्यापिका हरिप्रिया के अध्यापक चरित्र की बानगी प्रस्तुत की जा रही है।