Published 2025-06-26
Keywords
- औपचारिक विद्यालयी शिक्षा,
- अध्यापक,
- अध्यापन कर्म
How to Cite
Abstract
पिछले दो दशकों से भारतीय समाज का रुझान औपचारिक विद्यालयी शिक्षा के प्रति सकारात्मक रूप से बढ़ा है और इस शिक्षा व्यवस्था की मुख्य धुरी है ‘अध्यापक’। अध्यापक वह केंद्र बिंदु है जो समस्त शिक्षा व्यवस्था की सफलता या विफलता को प्रभावित करता है। सभी अभिभावक अध्यापकों से बहुत आशाएँ एवं अपेक्षाएँ रखते हैं। यद्यपि उच्च शिक्षा की प्रकृति ने स्कूली शिक्षा से जुड़े अध्यापकों की सामाजिक प्रतिष्ठा को प्रभावित करने की कोशिश की है, तथापि पूर्व विद्यालयी शिक्षा से लेकर उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों के अध्यापकों के अस्तित्व एवं प्रतिष्ठा को कोई नकार नहीं सकता। यदि उनकी प्रतिष्ठा पर कोई आंच आ भी रही है तो उसके लिए या तो स्वयं उनका दृष्टिकोण उत्तरदायी है या फिर उत्तरदायी हैं वे अध्यापक प्रशिक्षण संस्थान जो प्रशिक्षण कार्यक्रमों के दौरान अध्यापकों को यह एहसास दिलाने में नाकामयाब साबित हो रहे हैं कि उनका जीवन उनके विद्यार्थियों के लिए क्यों समर्पित होना चाहिए, अपने विद्यार्थियों के प्रति उनके क्या-क्या उत्तरदायित्व हैं। क्या विद्यालय समय पर पहुंच जाना और पाठ्यक्रम पूरा करने की औपचारिकता पूरी भर कर लेना ही ‘अध्यापन कर्म’ है या फिर अध्यापन कर्म इससे कहीं और आगे जाता है? विद्यालयों में अकादमिक चर्चा का माहौल क्यों नहीं बन पाता? विद्यालयों में ऐसा परिवेश क्यों नहीं सृजित हो पाता कि बच्चे खुशी-खुशी विद्यालय आएं? ऐसे कई सवालों एवं अनुभवों से जूझता हुआ लेख प्रस्तुत है।