Vol. 43 No. 3 (2019): प्राथमिक शिक्षक
Articles

समावेशी आरंभिक बाल शिक्षा आदर्श स्वप्न और व्यावहारिक संभावनाओं की पड़ताल

भारती
एसोसिएट प्रोफेसर, विशेष आवश्यकता समूह शिक्षा विभाग, रा.शै.अ.प्र.प., नई दिल्ली

Published 2025-09-02

Keywords

  • आरंभिक बाल शिक्षा,
  • भाषा पाठ्यचर्या,
  • समावेशी शिक्षण व्यवहार

How to Cite

भारती. (2025). समावेशी आरंभिक बाल शिक्षा आदर्श स्वप्न और व्यावहारिक संभावनाओं की पड़ताल. प्राथमिक शिक्षक, 43(3), p.68–74. http://14.139.250.109/index.php/pp/article/view/4580

Abstract

आरंभिक बाल शिक्षा (आ.बा.शि.) सुनते ही मन में ऊर्जा से भरपूर, मासूम मुस्कुराते चेहरों की उपस्थिति से जीवंत कक्ष का दृश्य आ जाता है। औपचारिक शिक्षा के इस आरंभिक काल में, क्या हम भाषा अधिगम के लिए समावेशी शिक्षण व्यवहारों को अपना सकते हैं? समावेशी शिक्षण व्यवहार कुछ और नहीं बल्कि विद्यार्थियों की क्षमताओं में विविधता को स्वीकारते हुए शिक्षण-अधिगम की प्रक्रिया में सभी की पूर्ण भागीदारी के लिए निरंतर प्रयत्नशीलता को बढ़ावा देते हैं। प्रस्तुत आलेख में आ.बा.शि. भाषा पाठ्यचर्या और संबंधित गतिविधियों में सांकेतिक भाषा और ब्रेल-पूर्व गतिविधियों के सार्थक सम्मिलन की संभावनाओं की तलाश की गई है। ब्रेल-पूर्व गतिविधियाँ, लघु माँसपेशीय कुशलताओं (fine motor skills) पर निर्भर करती हैं, जो आ.बा.शि. कार्यक्रम का भी एक अभिन्न अंग हैं। मोती पिरोना, रंग वाले ब्रश को पकड़ना, किताब के पन्ने पलटना, फीते बाँधना इत्यादि क्रियाओं के माध्यम से इनका अभ्यास कराया जाता है। इसी तरह से सांकेतिक भाषा में 'माफ़ कीजिए, धन्यवाद, कृपया, खेल, आपका स्वागत है, सहायता, कूदो, बैठो, खड़े हो जाओ, गाय, कुत्ता, बिल्ली' इत्यादि के लिए प्रयोग होने वाले मानक संकेतों को सरलता से आ.बा.शि. की गतिविधियों में समाहित किया जा सकता है क्योंकि यह भी लघु माँसपेशीय कुशलताओं को विकसित करने वाली आ.बा.शि. की गतिविधियों के साथ समरसता में है। अनुभवों एवं शोध ने यह दर्शाया है कि जीवन के शुरुआती वर्षों में एक से अधिक भाषा सीखना, बाद के वर्षों की तुलना में, सरल होता है। दृष्टिबाधिता वाले एवं श्रवणबाधिता वाले बच्चों की उपस्थिति एवं अनुपस्थिति की परवाह किये बिना, आरंभिक वर्षों में समावेशी शिक्षण व्यवहारों को आ.बा.शि. कक्षा-कक्ष में अपनाने से, विविधताओं को स्वीकारना और दूसरों की आवश्यकताओं एवं योग्यताओं के प्रति संवेदनशील होना जैसे मूल्यों को सरलता से अपनाया जा सकता है, जिससे समय आने पर समावेशी समाज की नींव डाली जा सकेगी।